जीवित्पुत्रिका व्रत कथा (Jivitputrika Vrat Katha Book)
जीमूतवाहन के नाम पर ही जीवित्पुत्रिका व्रत का नाम पड़ा है। पुत्र की रक्षा के लिए किया जाने वाला व्रत जीवित्पुत्रिका या जितिया का विशेष महत्व है। इस दिन माताएंअपनी संतान की रक्षा और कुशलता के लिए निर्जला व्रत करती है। जीमूतवाहन के नाम पर हीजीवित्पुत्रिका व्रत का नाम पड़ा है। आइए जानते हैं कि जीमूतवाहन कौन हैं और उनकी कथा क्या है। जितिया का व्रत अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस साल 2023 में 6 अक्टूबर को मनाया जाएगा। इसे जितिया या जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहा जाता है। यह इस दिन माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र, सेहत और सुखमयी जीवन के लिए व्रत रखती हैं। इस व्रत की शुरुआत सप्तमी से नहाय-खाय के साथ हो जाती है और नवमी को पारण के साथ इसका समापन होता है।
तीज की तरह जितिया व्रत भी बिना आहार और निर्जला किया जाता है। छठ पर्व की तरह जितिया व्रत पर भी नहाय-खाय की परंपरा होती है। यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है। सप्तमी तिथि को नहाय-खाय के बाद अष्टमी तिथि को महिलाएं बच्चों की समृद्धि और उन्नत के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद नवमी तिथि यानी अगले दिन व्रत का पारण किया जाता है यानी व्रत खोला जाता है।
जीवित्पुत्रिका (जितिया) व्रत कथा इन हिन्दी (Jitiya Vrat Katha)
धार्मिक कथाओं के मुताबिक बताया जाता है कि एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उसे पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थीं, दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और भगवान श्री जीऊतवाहन की पूजा और व्रत करने का प्रण ले लिया।
लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने लगी थी। मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया।
अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील, बड़ी बहन बनी और सियारन, छोटी बहन के रूप में जन्मीं। चील का नाम शीलवती रखा गया, शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई। जबकि सियारिन का नाम कपुरावती रखा गया और उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई।
भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी, उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए।
उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया। यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया। इससे उनमें जान आ गई।
सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए, जो कटे सिर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए। दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी, जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई। अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था, भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं। कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई, जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया।
चील और सियारिन जीतिया कथा
कहानी कुछ ऐसी है कि एक नगर में किसी वीरान जगह पर पीपल का पेड़ था। इस पेड़ पर एक चील और इसी के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। एक बार कुछ महिलाओं को देखकर दोनों ने जिऊतिया व्रत किया। जिस दिन व्रत था उसी दिन नगर में एक मृत्यु हो गई। उसका शव उसी निर्जन स्थान पर लाया गया।
सियारिन ये देखकर व्रत की बात भूल गई और मांस खा लिया। चील ने पूरे मन से व्रत किया और पारण किया। व्रत के प्रभाव में दोनों का ही अगला जन्म कन्याओं अहिरावती और कपूरावती के रूप में हुआ। जहां चील स्त्री के रूप में राज्य की रानी बनी और छोटी बहन सियारिन कपूरावती उसी राजा के छोटे भाई की पत्नी बनी। चील ने सात बच्चों को जन्म दिया, लेकिन कपूरावती के सारे बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। इस बात से जल-भुन कर एक दिन कपूरावती ने सातों बच्चों कि सिर कटवा दिए और घड़ों में बंद कर बहन के पास भिजवा दिया।
जीतिया कथा (चील और सियारिन)
कहा जाता हैं एक बार एक जंगल में चील और लोमड़ी (सियार) घूम रहे थे, तभी उन्होंने मनुष्य जाति को इस व्रत को विधि पूर्वक करते देखा एवम कथा सुनी। उस समय चील ने इस व्रत को बहुत ही श्रद्धा के साथ ध्यानपूर्वक देखा, वही लोमड़ी का ध्यान इस ओर बहुत कम था। चील ने कथा में बताये नियमानुसार निर्जला उपवास किया जबकि सियार ने मांस खा लिया। चील के संतानों को कभी कोई हानि नहीं पहुँची लेकिन लोमड़ी की संतान जीवित नहीं बच पाये। इसलिए पर्व में चील और सियार का बार-बार ज़िक्र आता है और पहले और तीसरे दिन खाना पहले इन्हें ही खिलाया जाता है। हमारे यहाँ इन्ही चील और सियार को चिल्हो-सियारो कहा जाता है।
जीवितपुत्रिका व्रत कथा
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बडे उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।
पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं, मुझे एक ही पुत्र है, पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंपते हैं। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे।
जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरुड़ मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।
गरूड़ ने अपनी कठोर चोंक का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं। आप मुझे खाकर भूख शांत करें।
गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ ने कहा- हे उत्तम मनुष्य में तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं। तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो।
राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे पक्षीराज आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें।आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें। गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। गरूड़ ने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा। हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।
तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई। यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। जीवित पुत्रिका के दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के बाद ऊपर बताई गई व्रत कथा भी सुननी चाहिए।
यह पर्व महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं और इसके सम्बंध में दो कहानियाँ है जो इस प्रकार है :-
महा भारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अन्दर बदले की आग तीव्र थी। जिस कारण उसने पांडवो के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगो को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थी। उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया। जिसे निष्फल करना नामुमकिन था। उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक थी, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम #जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना। तब ही से इस व्रत को किया जाता हैं।
दूसरी कथा कुछ ऐसी है कि गन्धर्व राजकुमार जीमूतवाहन को पिता द्वारा राजगद्दी पर बैठाकर वन की ओर चले गए। राजकुमार का मन राजकाज में न लगा तो वो राजपाठ भाईयों के हवाले कर पिता की सेवा में वन चले गए। उसी वन में उनका विवाह #मलयवती नामक कन्या से हुआ। एक दिन वन में घूमते हुए राजकुमार काफी आगे निकल गए जहां उन्होंने बूढी़ औरत का रोना सुनाई दिया उस औरत से पूछने पर उसने बताया कि वह नागवंश की स्त्री है उसका एक ही पुत्र है शंखचूड़। नागराज ने गरूड के समक्ष प्रतिज्ञा की है प्रत्येक दिन एक नाग सौंपा जाएगा और आज उसके पुत्र की बारी है। इस बात को सुन जीमूतवाहन ने उस स्त्री को कहा कि वह चिंतामुक्त रहे उसके पुत्र की जगह वह जाएगा। इतना कह वह लाल कपड़ा #शंखचूड़ से लेकर गरूड की चुनी हुई जगह पर लेट गए। गरूड़ अपने नियत समय पर आकर अपने भोजन को पंजे में दबाकर चोटी पर बैठ गए अपने चुंगल में आए प्राणी की आह व आंसू न देख गरुड़ ने उससे उसका परिचय पूछा तो राजकुमार ने सारी बात बता दी। गरुड राजकुमार की बहादुरी से प्रसन्न होकर उसे जीवनदान दिया और नाग जाति की बलि न लेने का वचन दिया। जीमूतवाहन की बहादुरी से संपूर्ण नाग जाति की रक्षा हुई। तभी से जीमूतवाहन की पूजा का विधान शुरु हुई।
इस प्रकार से जितिया से सम्बंधित दोनों कथाएँ समाप्त हुई।
ठेठ पलामू की तरफ से सभी माताओं को प्रणाम और उनके सभी संतानों से निवेदन है कि जो माँ आपके लिये इतना कठिन व्रत करती हैं आप भी उनके लिए जिम्मेवार बने, पूरे जीवन भर उनका सहारा बने ।
जीवित्पुत्रिका पूजा विधि
- सुबह जल्दी उठकर स्नान करने के बाद सूर्य नारायण की प्रतिमा को स्नान कराएं।
- मिट्टी और गाय के गोबर से चील व सियारिन की मूर्ति बनाएं।
- इसके बाद धूप, दीप आदि से आरती करें और भोग लगाएं।
- कुशा से बनी जीमूतवाहन की प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि अर्पित करें।
- इस व्रत के पारण के बाद महिलाएं जितिया का लाल रंग का धागा गले में पहनती हैं। व्रती महिलाएं जितिया का लॉकेट भी धारण करती हैं।
- विधि- विधान से पूजा करें और व्रत की कथा अवश्य सुनें।
- पूजा के दौरान सरसों का तेल और खल चढ़ाया जाता है।
- व्रत पारण के बाद दान जरूर करें।
जितिया (जीवित्पुत्रिका) व्रत का महत्व
एक समय की बात है, एक जंगल में चील और लोमड़ी घूम रहे थे, तभी उन्होंने मनुष्य जाति को इस व्रत को विधि पूर्वक करते देखा एवम कथा सुनी। उस समय चील ने इस व्रत को बहुत ही श्रद्धा के साथ ध्यानपूर्वक देखा, वहीं लोमड़ी का ध्यान इस ओर बहुत कम था। चील के संतानों और उनकी संतानों को कभी कोई हानि नहीं पहुंची, लेकिन लोमड़ी की संतान जीवित नहीं बची। इस प्रकार इस व्रत का महत्व बहुत अधिक बताया जाता हैं।
ऐसी मान्यता है कि जो महिलाएं जितिया व्रत को रखती हैं उनके बच्चों के जीवन में सुख शांति बनी रहती है और उन्हें संतान वियोग नहीं सहना पड़ता। इस दिन महिलाएं पितृों का पूजन कर उनकी लंबी आयु की भी कामना करती हैं। इस व्रत में माता जीवित्पुत्रिका और राजा जीमूतवाहन दोनों पूजा एवं पुत्रों की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना की जाती है। सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही कुछ खाया पिया जाता है। इस व्रत में तीसरे दिन भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाए जानें की परंपरा है।
जितिया व्रत की कथा के अनुसार यह माना जाता है कि इस व्रत का महत्व महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। जब भगवान श्री कृष्ण ने उत्तरा के गर्भ में पल रहे पांडव पुत्र की रक्षा के लिए अपने सभी पुण्य कर्मों से उसे पुनर्जीवित किया था। तब से ही स्त्रियां आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को निर्जला व्रत रखती हैं। कहते हैं कि इस व्रत के प्रभाव से भगवान श्री कृष्ण व्रती स्त्रियों की संतानों की रक्षा करते हैं।
प्राचीण मान्यता
जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं। महा भारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अन्दर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण उसने पांडवों के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगों को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थी।
उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था।
उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक थी, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना। तभी से संतान की लंबी उम्र और मंगल कामना के लिए हर साल जितिया व्रत रखने की परंपरा को निभाया जाता है।
जीवित्पुत्रिका व्रत या जितिया की आरती
ओम जय कश्यप नन्दन, प्रभु जय अदिति नन्दन।
त्रिभुवन तिमिर निकंदन, भक्त हृदय चन्दन॥ ओम जय कश्यप…
सप्त अश्वरथ राजित, एक चक्रधारी।
दु:खहारी, सुखकारी, मानस मलहारी॥ ओम जय कश्यप…
सुर मुनि भूसुर वन्दित, विमल विभवशाली।
अघ-दल-दलन दिवाकर, दिव्य किरण माली॥ ओम जय कश्यप…
सकल सुकर्म प्रसविता, सविता शुभकारी।
विश्व विलोचन मोचन, भव-बंधन भारी॥ ओम जय कश्यप…
कमल समूह विकासक, नाशक त्रय तापा।
सेवत सहज हरत अति, मनसिज संतापा॥ ओम जय कश्यप…
नेत्र व्याधि हर सुरवर, भू-पीड़ा हारी।
वृष्टि विमोचन संतत, परहित व्रतधारी॥ ओम जय कश्यप…
सूर्यदेव करुणाकर, अब करुणा कीजै।
हर अज्ञान मोह सब, तत्वज्ञान दीजै॥ ओम जय कश्यप..
Jivitputrika Vrat Katha Hindi
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