आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ PDF

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आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ

आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ

आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ

आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण हिस्से को प्रदर्शित करती हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल हिंदी भाषा साहित्य के विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय काल है। इससे पूर्व के कालों आदिकाल (वीरगाथा कला), पूर्व मध्यकाल (मक्तिकाल) और उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) में जहां हिंदी साहित्य का विकास क्षेत्रीय भाषाओं (अपभ्रंश, मैथिली, राजस्थानी, ब्रज, अवधी आदि) के माध्यम से काव्य रचना के क्षेत्र में हुआ, वहीं आधुनिककाल (गद्यकाल) में गद्य-पद्य दोनों का समान विकास हुआ, वह भी हिंदी के सर्वमान्य स्वरूप खड़ीबोली के माध्यम से।

आधुनिक काल की समय सीमा

हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल को गद्यविकास काल या जागरण काल भी कहा गया है। इसका समय वि. सं. 1900 से वर्तमान समय तक या 1843 ई. से वर्तमान समय तक माना गया है। मुगल-साम्राज्य के पतन से ही इसका आरम्भ माना गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक काल का प्रारम्भ सं. 1900 (सन् 1843) से माना है। कुछ इतिहासकारों ने आधुनिक जीवन-बोध के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जन्मवर्ष सन् 1850 से आधुनिक काल का प्रारम्भ माना है।

आधुनिक काल का परिचय

साहित्यिक जागरण के साथ जनता में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक जागृति भी होने लगी थी। विदेशी शासन और अपने धर्म का प्रचार भी पूरी तरह से शुरू हुआ। मुसलमानों ने भी अपने धर्म का प्रचार किया, लेकिन उनका तरीका तलवार के ज़ोर पर था, जबकि हमारा प्रचार बुद्धिवाद पर आधारित था। प्राचीन काल में मुद्रण-यंत्रों के अभाव में साहित्य की सुरक्षा के लिए पुस्तकें कंठस्थ की जाती थीं। पद्य की संगीतात्मकता के कारण वह सरलता से याद हो जाता था। अंग्रेजों के साथ-साथ इस देश में मुद्रण-यंत्र भी आए, और पुस्तकों को कंठस्थ करना अनावश्यक समझा जाने लगा।

यद्यपि गद्य की परम्परा ब्रजभाषा में पहले से थी, परंतु उसकी वास्तविक धारा जैन-सम्पर्क स्थापित करने की भावना से प्रभावित होकर शासन की सुविधा के लिए अंग्रेज अधिकारियों द्वारा शुरू की गई। लल्लूलाल तथा सदल मिश्र ने जॉन गिलक्राइस्ट की प्रेरणा से तथा मुंशी सदासुखलाल और इंशाअल्ला खाँ ने स्वांतः सुखाय खड़ी बोली में प्रारंभिक गद्य लिखा।

आधुनिक काल की पृष्ठभूमि

सन 1857 के विप्लव के बाद ही समाज-सुधार और राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित होता है। आधुनिक काल को अलग-अलग विभागों में बाँटा गया है, जैसे कि भारतेंदु युग, प्रेमचंद युग, आदि।

आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ

हिन्दी में साहित्यिक वादों एवं प्रवृत्तियों का परिचय अनेक पुस्तकों में सुलभ है। सर्वत्र वादों की संख्या गिनाने में होड़-सी लगी हुई है। इस प्रकार हिन्दी में धड़ल्ले से अभिव्यंजनावाद, अतियथार्थवाद, अस्तित्ववाद, प्रतीकवाद, प्रभाववाद, बिम्बवाद, भविष्यवाद, समाजवादी यथार्थवाद आदि की चर्चा हो रही है, गोया ये सभी प्रवृतियाँ हिन्दी साहित्य की हैं। ज्ञानवर्धन के इन उत्साही प्रयत्नों से आधुनिक हिन्दी साहित्य की वास्तविक प्रवृति के बारे में काफी भ्रम फैल रहा है।

वैसे, किसी अन्य भारतीय साहित्य में प्रचलित प्रवृति एवं वाद का परिचय हिन्दी पाठक देना बुरा नहीं है। किन्तु हिन्दी में अनेक प्रचलित-अप्रचलित देशी-विदेशी वादों की अंधाधुंध चर्चा का निवारण होना चाहिए। निःसन्देह यह प्रवृत्ति व्यावसायिक पुस्तकों में विशेष रूप से उभरकर आयी है, लेकिन सन्दर्भ हेतु प्रस्तुत किए जाने वाले सम्मानित साहित्य-कोशों ने भी इस भ्रम के प्रसार में काफी योगदान किया है।

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