Prithviraj Raso (पृथ्वीराज रासो) PDF

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Prithviraj Raso (पृथ्वीराज रासो)

Prithviraj Raso (पृथ्वीराज रासो)

पृथ्वीराज रासो (पृथ्वीराज रासो) एक अद्भुत महाकाव्य है, जो सम्राट पृथ्वीराज चौहान के जीवन और उनके अद्भुत चरित्र का वर्णन करता है। इस काव्य को चंदबरदाई ने लिखा, जो पृथ्वीराज के बचपन के मित्र और उनके राजकवि थे। चंदबरदाई अपनी वीर रस की कविताओं के माध्यम से पृथ्वीराज की सेना को युद्ध में प्रेरित करते थे। प्राचीन समय की परंपरा के अनुसार, पृथ्वीराज रासो को चंदबरदाई ने पृथ्वीराज के दरबारी कवि के रूप में तैयार किया था, जो सभी युद्धों में राजा के साथ थे। अंतिम सर्ग में, जिसका संबंध चंदबरदाई और पृथ्वीराज की मृत्यु का वर्णन करता है, इस रचना को चंदबरदाई के पुत्र जाल्हा (या जल्हान) ने पूरा किया।

पृथ्वीराज रासो की संरचना

पृथ्वीराज रासो ढाई हजार पृष्ठों का एक बड़ा ग्रंथ है, जिसमें कुल 69 सर्ग (अध्याय) हैं। इस ग्रंथ में प्राचीन समय के लगभग सभी छन्दों का प्रयोग किया गया है। इसके मुख्य छन्दों में कवित्त (छप्पय), दूहा (दोहा), तोमर गोत्र (त), त्रोटक, गाहा, और आर्या शामिल हैं। उदाहरण के लिए, कादम्बरी के साथ प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण भट्ट के पुत्र ने पूरा किया, ठीक उसी प्रकार पृथ्वीराज रासो के अंत का भी लेखन चंद के पुत्र जल्हण भट्ट राव ने किया। रासो में कहा गया है कि जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके ग़ज़नी ले गया, तब कुछ दिनों बाद चंद भी वहाँ पहुंचे।

पृथ्वीराज रासो की महत्वपूर्ण विशेषताएँ

यह महाकाव्य रासक परंपरा का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इसका महत्व इस बात में है कि यह दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् पृथ्वीराज के जीवन से जुड़ी घटनाओं पर आधारित है। प्रारंभ में, इस काव्य का एक व्यापक रूप हिंदी साहित्य में प्रचलित था, जिसमें लगभग ग्यारह हजार रूपक थे। इसके बाद, छोटे आकार के कुछ प्रतियाँ मिलीं, जिनमें लगभग 3,500 और उनकी तुलना में छोटे आकार की प्रतियाँ भी पाई गईं, जिनकी संख्या बारह सौ से अधिक नहीं थी। कई प्रतियाँ चार सौ से पाँच सौ रूपकों की भी थीं। इन सभी प्रतियों ने रचना के विभिन्न पूर्ण रूपों का प्रतिनिधित्व किया है, जिससे यह विवाद हुआ है कि इन रूपों का विकास किस प्रकार हुआ।

कुछ विद्वानों ने कहा कि सबसे बड़ा रूप ही रचना का मूल रूप होगा, और बाकी छोटे रूप इसी से विकसित हुए होंगे। 1955 में एक विद्वान ने तीन पाठों के आकार संबंधी अध्ययन के माध्यम से यह प्रमाणित किया कि विभिन्न पाठों में संख्या की समानता नहीं है। इसलिए यह साफ है कि प्राप्त रूपों का विकास क्रम लघुतम से बृहत् है।

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