अष्टांग हृदयम पुस्तक
“अष्टांग हृदयम” एक प्रमुख आयुर्वेदिक पुस्तक है जो प्राचीन भारतीय आयुर्वेद के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। इस पुस्तक का रचनाकार आचार्य वाग्भट थे, जो कि कश्मीरी ब्राह्मण थे। यह पुस्तक आयुर्वेद के विभिन्न पहलुओं और उनके उपचार के सिद्धांतों को विस्तार से वर्णित करती है।
“अष्टांग हृदयम” का अर्थ होता है “हृदय के आठ भाग”। इस पुस्तक में आयुर्वेद के विभिन्न शाखाओं के सिद्धांतों, रोग निदान और उपचार की विस्तृत जानकारी प्रदान की गई है। यह पुस्तक रसायन, बल्य, वजीकरण, शाल्य चिकित्सा, शाल्यतन्त्र, निदान, स्वस्थवृत्ति, उपसर्ग, विमान, उत्तरतन्त्र, और अतिद्वैर्य के आठ खंडों में विभाजित है।
“अष्टांग हृदयम” आयुर्वेद के मौलिक सिद्धांतों को समझने में महत्वपूर्ण है, और यह आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतियों के लिए एक महत्वपूर्ण संस्थान है। यह पुस्तक आज भी वैज्ञानिक अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है, और इसे आयुर्वेद छात्रों और चिकित्सा पेशेवरों द्वारा अध्ययन और उपयोग किया जाता है।
अष्टांग हृदयम के सूत्र
अष्टांग हृदयम के नाम से पता चलता है कि इसमें आठ विभाग हैं जो विभिन्न चिकित्सा विषयों पर चर्चा करते हैं। ये विभाग हैं:
- सूत्रस्थान (Sutrasthana): इसमें आयुर्वेद के सिद्धांत, चिकित्सा की बुनियादी बातें, रोगों का वर्णन, और उनका उपचार आदि की चर्चा होती है।
- निदानस्थान (Nidanasthana): इस खंड में रोगों की निदान (डायग्नोसिस) की प्रक्रिया के बारे में बताया गया है।
- शारीरस्थान (Sharirasthana): यहां मनुष्य के शारीरिक संरचना, प्रकृति, रोगों के लक्षण, और उनके प्रभाव के बारे में चर्चा की जाती है।
- चिकित्सास्थान (Chikitsasthana): इस विभाग में विभिन्न रोगों के उपचार के तरीकों की चर्चा की जाती है।
- कल्याणकारकस्थान (Kalpanasthana): यहां विभिन्न औषधियों, चूर्ण, रस, गुग्गुल, और घृतादि औषधियों के निर्माण और उनके प्रयोग का विवरण दिया गया है।
- सिद्धस्थान (Siddhisthana): इसमें चिकित्सा के सिद्धांत, औषधि के विभिन्न प्रकार, और उनके तैयारी की विधियों पर विस्तार से चर्चा की गई है।
- उत्तरस्थान (Uttarasthana): इसमें विभिन्न विषयों पर विस्तृत चर्चा होती है, जैसे कि दवाओं के उपयोग की दिशा निर्देश, और रोगी की देखभाल।
- अत्रोपतनिष्ठान (Uttarasthana): इस खंड में विभिन्न रोगों के लक्षण, कारण, और उपचार के बारे में चर्चा की गई है।